गुरुवार, 19 नवंबर 2009

अहिस्ता बोलने वाले का अहिस्ता से चले जाना

शाम के करीब साढ़े पांच बजे यूएनआई की ऑफिस पहुंचना हुआ। यूनियन रूप में राजेश जी अपने किसी सहकर्मी के निधन पर बात कर रहे थे। शुरूआती बातचीत में उस व्यक्ति से अपरिचिय सा लगा,लेकिन नाम की जानकारी होते ही परिचय का सारा पिटारा खुल गया। अचानक भारतीय जनसंचार संस्थान और उस व्यक्ति से जुड़ी बातों की धुंधली तस्वीर उभरने लगी। क्योंकि धीमी आवाज में बोलने वाले राम कृष्ण पाण्डेय जी से पहला परिचय यहीं हुआ था। ये अलग बात है कि हम अति उत्सुकों को उनके पढ़ाने का अंदाज बहुत रास नहीं आया था। हालांकि बातें चाहे वह खबरों के चयन को लेकर हुईं हों या फिर मुश्किल समय की पत्रकारिता के तरीकों पर,हमारे लिए बेहद जरूरी थीं। कमी हमारी थी,क्योंकि हम जितने उत्साह में थे,उसमें किसी सुलझे हुए व्यक्ति को समझने का धैर्य नहीं था और यह बात किसी एक ही अध्यापक पर नहीं लागू हो रही थी। रामकृष्ण जी से आईआईएससी के बाद जब भी मिलना हुआ एक स्नेहिल स्पर्श लिए खैरियत पूछने वाले अभिभावक का अनुभव रहा। अभिभावक इसलिए क्योंकि इस महानगर में एतमिनान से कोई वरिष्ट दो मिनट बिना किसी हड़बड़ी के हाल पूछ ले,कम ही होता है।
अपने पीछे पत्नी और चार बच्चों जिसमें दो बेटियां और दो बेटों,का परिवार छोड़ गये रामकृष्ण पाण्डेय जी शुरूआती दौर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। जिसका असर रहा कि नौकरी बुहत ही देर से शुरू की। यूएनआई से रिटाटर होने के बाद बहुत ही कम पेंशन मिल रही थी। तब जो भी जानकारी मिली,वह दुःखद थी। उनका निधन हॉर्ट अटैक से हुआ । हार्ट अटैक की जानकारी होने में काफी देर लगी,शायद इतनी देर की कोई उपाय कारगर नहीं हो सके। उन्हें शुगर था,इसलिए हार्ट अटैक में होने वाला दर्द नहीं हुआ। जिसे साइलेंट हॉर्ट अटक कहा जाता है। उनके सहकर्मी बताते हैं कि उन्हें हॉर्ट से जुड़ी कुछ बीमारी थी,जिसको लेकर कई साल पहले डॉक्टर को भी दिखाया था। इस बीमारी के कई लक्षण उनमें थे,जैसे वे तेज चलने हांफने लगते थे,लेकिन किन्हीं कारणों से वे इसे छिपाते रहे। अंतर्मुखी होने का असर तो था ही और कुछ अन्य समस्याएं भी थीं।
उनसे ज्यादा बातचीत तो नहीं होती थी,हालाकि पत्रकारिता को जिंदा रखने के तरीकों पर राय हमें मिलती रहती थी। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन में ऐसे कई अनुभव संजोये थे। राजेश जी उनके बारे में बताते हैं कि सोच से निहायत ही सीधे किस्म के आदमी थे। कई मायनों में वे अपनी बातें दोस्तों से नहीं बांट पाते थे। शायद वे अपनी हर तकलीफ खुद में ही समेट लेना चाहते थे। यही कारण है कि उनकी बीमारी की जानकारी सभी को इतनी देर से लगी कि किसी के पास कुछ कर पाने का वक्त नहीं था। राजेश जी अपनी बात करते हुए यादों में चले जाते हैं। कहते हैं कि सरल स्वभाव के होने के बावजूद पत्रकारिता के तरीकों में रहते हुए वे अपनी बात कह लेने में माहिर थे। जब वे जनशक्ति अखबार का मुख्य पृष्ठ देख रहे थे,तो एक खबर को न छापने को लेकर दबाव आने लगा। संपादक तक ने उनसे खबर रोकने के लिए कहा और वे सभी से एक ही बात पूछते कि कौन सी खबर रोकनी है,जिसका जवाब किसी के पास नहीं था। और उनका तर्क था कि जब पता ही नहीं कि कौन सी खबर रोकनी है,तो मैं खबर कैसे रोक दूं और क्या यह जरूरी कि जो खबर मैं छापने जा रहा हूँ,उसी खबर को रोकने के लिए कहा जा रहा है। जबकि किस खबर को निशाने पर लिया जा रहा था,यह उन्हें बखूबी पता था। वे जानते थे कि ऐसे मामले में गोल-मटोल बातों से इशारा ही किया जाता है। इसी बात को बतौर तर्क इस्तेमाल करते वे खबर को मुख्य पृष्ठ पर छापना चाहते थे और खबर छपी भी। खबर थी कि एक युवक भाग रहा है और पुलिस पकड़ने के लिए खदेड़ रही है। वह युवक नसबंदी के लिए लाया गया था और इसकी फोटो भी आ चुकी थी।
एक और वाकया याद आ रहा है। हमारे सहपाठियों ने रामकृष्ण जी का अध्यापक होने के नाते पैर छूना चाहा। तो उन्होंने साफ शब्दों में मना कर दिया। कहा कि सम्मान के लिए पैर छूने की जरूरत नहीं है,बातचीत ही काफी है। जिससे साफ होता है कि वे सभी गैर-तार्किक बातों और रूढ़ियों का निजी स्तर पर भी विरोध करने में सक्षम थे। उनकी सार्वजनिक प्रतिबद्धता और निजी जीवन की असलियत में भेद नहीं था। आज रामकृष्ण पाण्डेय जी हमारे बीच भले सशरीर भले न हों,लेकिन उनके विचार हमें हमारी जिम्मेदारी का अहसास दिलाते रहेंगे।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

पत्रकारिता के एक युग का अंत

अम्बरीश कुमार

जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे .जनसत्ता जिसने हिंदी पत्रकारिता की भाषा बदली तेवर बदला और अंग्रेजी पत्रकारिता के बराबर खडा कर दिया .उसी जनसत्ता को बनाने वाले प्रभाष जोशी का कल देर रात निधन हो गया । दिल्ली से सटे वसुंधरा इलाके की जनसत्ता सोसाईटी में रहने वाले प्रभाष जोशी कल भारत और अस्ट्रेलिया मैच देख रहे थे । मैच के दौरान ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा । परिवार वाले उन्हें रात करीब 11.30 बजे गाजियावाद के नरेन्द्र मोहन अस्पताल ले गए , जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया । प्रभाष जोशी की मौत की खबर पत्रकारिता जगत के लिए इतनी बड़ी घटना थी कि रात भर पत्रकारों के फोन घनघनाते रहे । उनकी मौत के बाद पहले उनका पार्थिव शरीर उनके घर ले जाया गया फिर एम्स । इंदौर में उनका अंतिम संस्कार किया जाना तय हुआ है , इसलिए आज देर शाम उनका शरीर इंदौर ले जाया जाएगा ।
प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे।मालवा प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थीऔर जनसत्ता में देशज भाषा का नया प्रयोग भी उन्होंने किया । पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने अमदाबाद और चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला। 1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसने हिन्दी पत्रकारिता की भाषा और तेवर बदल दिया ।जनसत्ता सिर्फ अखबार नहीं बना बल्कि ९० के दशक का धारदार राजनैतिक हथियार भी बना। पहली बार किसी संपादक की चौखट पर दिग्गज नेताओ को इन्तजार करते देखा। यह ताकत हिंदी मीडिया को प्रभाष जोशी ने दी ,वह हिंदी मीडिया जो पहले याचक मुद्रा में खडा रहता था । इसे कैसा संयोग कहेंगे की ठीक एक दिन पहले लखनऊ में उन्होंने हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा .इंडियन एक्सप्रेस से उनका सम्बन्ध कैसा था इसी से पता चल जाता है . प्रभाष जोशी करीब 3० घंटे पहले चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे .आज यानी छह नवम्बर को तडके ढाई बजे दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे .मुझे लगा चक्कर आ जायेगा और गिर पडूंगा .चार नवम्बर को वे लखनऊ में एक कर्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे .मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अम्बरीश कुमार कहा है .यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ .मेरे दफ्तर पहुचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है .प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मे खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा .कुछ देर में प्रभाष जी दफ्तर आ गये .दफ्तर पहली मंजिल पर है फिर भी वे आये .करीब डेढ़ घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गाँधी आदि के बारे में बात कर पुराणी याद ताजा कर रहे थे. तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संसकरण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है .प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,दीपा आदि भी मौजूद थी .
तभी प्रभाष जी ने कहा .वाराणसी से यहाँ आ रहा हूँ कल मणिपुर जाना है पर यार दिल्ली में पहले डाक्टर से पूरा चेकउप कराना है.दरअसल वाराणसी में कार्यक्रम से पहले मुझे चक्कर आ गया था .प्रभाष जोशी की यह बात हम लोगो ने सामान्य ढंग से ली .पुरानी याद तजा करते हुए मुझे यह भी याद आया की १९८८ में चेन्नई से रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से मिलने को भेजा था तब मे बंगलोर के एक अखबार में था ..पर जब प्रभाष जोशी से मिलने इंडियन एक्सप्रेस के बहादुर शाह जफ़र रोड वाले दफ्तर गया तो वहां काफी देर बाद उनके पीए से मिल पाया .उनके पीए यानि राम बाबु को मैंने बतया की रामनाथ गोयनका ने भेजा है तो उन्होंने प्रभाष जी से बात की .बाद बे जवाब मिला -प्रभाष जी के पास तीन महीने तक मिलने का समय नहीं है ..ख़ैर कहानी लम्बी है पर वही प्रभाष जोशी बुधवार को मुझे देखने दफ्तर आये और गुरूवार को हम सभी को छोड़ गए .
लखनऊ के इंडियन एक्सप्रेस की सहयोगियों से मैंने उनका परिचय कराया तभी मौलश्री की तरफ मुखातिब हो प्रभाष जोशी ने कहा था -मेरा घर तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार में ही है .हम सब कुछ समझ नहीं पाए .उसी समय भोपाल से भास्कर के पत्रकार हिमांशु वाजपई का फोन आया तो हमने कहा-प्रभाष जी से बात कर रहा हु कुछ देर बात फोन करना . काफी देर तक बात होती रही पर आज उनके जाने की खबर सुनकर कुछ समझ नहीं आ रहा .भारतीय पत्रकारिता के इस भीष्म पितामह को हम कभी भूल नहीं सकते .मेरे वे संपादक ही नहीं अभिभावक भी थे..यहाँ से जाते बोले -अपनी सेहत का ख्याल रखो .बहुत कुछ करना है.प्रभाष जी से जो अंतिम बातचीत हुईं उसे हम जल्द देंगे .प्रभाष जोशी का जाना पत्रकारिता के एक युग का अंत है .

बुधवार, 4 नवंबर 2009

भविष्य की नजर में आज का दौर....

हर गुजरने वाला वक्त आने वाले वक्त की कहानी लिख रहा होता है। जब इनका दस्तावेजीकरण कर दिया जाता है तो इन्हीं कहानियों को इतिहास कहलाने का मौका मिलता है। और ये इतिहास आईने के बतौर असलियत दिखाने के लिए प्रतिबद्ध रहता है। कतई जरूरी नहीं कि इतिहास का अध्ययन केवल कामयाबियों पर चर्चा के लिए ही हो। आने वाले वक्त को पूरा हक बनता है कि वह गुजरे हुए दौर की नाकामयाबियों पर विस्तार से बात करे। भविष्य की इसी शर्त पर मौजूदा दौर को निहारने पर एक बेचैनी सी महसूस होती है। एक प्रश्न सामने होता है कि आज के दौर के इतिहास को भविष्य किन शब्दों में जांचेगा। यह सम्भव ही नहीं कि इसे अज्ञात कालखंड मानकर अंधयुग घोषित कर दे। यानी जो कुछ कहा-सुना जायेगा,उसमें आज की घटनाओं का ब्यौरा दर्ज होगा ही। कहा जायेगा कि स्वतंत्र भारत ने वह दौर भी देखा है,जब लोकतांत्रिक तानाशाही यानी इमरजेंसी के बाद देश का राजनीतिक फलक लगभग दीवालियेपन की तरफ बढ़ गया था। संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के खेल के लिए खुला छोड़ दिया गया था। उसके बाद देश में राजनीति के नाम पर जो कुछ भी हुआ,वह केवल वादों का विज्ञापन भर था। बिगड़ते हालात का अंदाजा इसी बात से लगा जा सकता है कि ‘नेता’ जैसा सम्बोधन गाली की तरह हो गया था। पेशेवर राजनीतिज्ञों की जगह पूंजीपतियों और अपराधिक मामलों में वांछित लोगों ने ले ली थी। देश की शीर्षस्थ राजनीति पर आंकड़ों के उन बाजीगरों और नौकरशाहों का वर्चस्व हो गया था,जो जनता की भूख और कल्याण जैसी बातें आंकड़ों की शक्ल में ही समझ सकते थे। यही कारण था कि खाद्यान्न की कमी न होने के बावजूद दाम आसमान छू रहे थे। मंहगाई ने लोगों के निवाले को छोटा कर दिया था,उस पर सरकारी स्तर के वादों का तुर्रा था कि मंहगाई रोकने के उपाय किये जाएंगे। किसान कर्ज के बोझ तले आत्महत्या करने को मजबूर थे। अगर योजनाओं की बात करें तो जनकल्याण के नाम पर सैकड़ों योजनाएं चल रही थीं,लेकिन जमीनी हकीकत भ्रष्टाचार की दलदल में समा चुकी थी। आजादी के साठ साल बाद शुरू किये गये सर्व शिक्षा अभियान के तहत प्राथमिक स्कूलों में मिड डे मील योजना चालू की गई थी। जिसमें प्रति बच्चे दो रुपये सात पैसे की दर से धन मुहैय्या कराया जा रहा था। जो मंहगाई के चलते भूख और गरीबी का उपहास भर था। क्योंकि सन 2009 में देश की राजधानी सहित कई बड़े शहरों में दालों की कीमत 100 रूपये प्रति किलो तक पहुंच गई थी। ये मंहगाई कोई एक दो दिन की बात नहीं थी,दाल कई महीनों तक अपने दोगुने मूल्य पर बिक रही थी। दिल्ली की सरकारी बस सेवा ने घाटे से उबरने के नाम पर राजधानी में बसों के किराये भी बढ़ा दिये थे। किराया बढ़ोत्तरी ने लोगों की जेब खाली करना शुरू कर दिया था। यह सब उससमय हो रहा था,जब मंदी के सहारे पूंजीवर्ग अपने लाभ को अधिकतम करने की मंशा से छंटनी कर रहा था।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में राजनीति की अलग ही बयार बह रही थी। एक दिन की अच्छी बरसात के बाद सड़कों पर छह-छह घंटे का जाम लग गया था। जिस पर सूबे की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बयान दिया था कि जाम तो होगा ही,इसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ। वर्ष 2009 के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से दिया गया प्रधानमंत्री का भाषण कई मायनों में ऐतिहासिक था। उस समय देश के राजनेता सिर्फ एतिहासिक भाषण देने का ही इतिहास रच रहे थे।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे,जिनके भाषण को किसी कम्पनीनुमा राजनीतिक पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में अपने निवेशकों को दिया गया सम्बोधन कहा गया। हालांकि उस दौर में सरकारी नुमाईंदों ने सुनने से ध्यान हटाकर सिर्फ कहने पर केंद्रित कर दिया था। यही कारण था कि देश की बहुसंख्यक आबादी असमंजस की जिंदगी जीने को मजबूर थी। देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री मायावती थी,जिनकी राजनीति बुत की राजनीति में तब्दील हो चुकी थी। हैरान करने वाली जानकारी है कि मायावती महोदया ने खुद अपनी मूर्तियां बनवाकर चौराहों व अन्य जगहों पर रखवाई थीं। वैसे यह ऐतिहासिक काम था। क्योंकि जीते जी मकबरा बनवाने की परम्परा तो भारत के इतिहास में मिलती है।
देश के 2009 हुए में आम चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी और उसके घटक दल को बहुमत मिला था। मंत्रिमंडल में दो दर्जन से अधिक ऐसे मंत्रियों को शपथ दिलाई गई थी,जिनको राजनीति का व्यवसाय विरासत में मिला था। कई टिप्पणीकारों ने तत्कालीन मंत्रिपरिषद को ‘कुनबा कैबिनेट’ का नाम दिया था। यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र के काफी अहम साबित हुआ। क्योंकि इस चुनाव में वामपंथी अपनी जमीन गवां बैठे थे और संसद के भीतर विपक्ष के नाम पर मौजूद भारतीय जनता पार्टी आन्तरिक कलह का शिकार हो गई थी। जिसके चलते पूरी संसदीय व्यवस्था में विपक्षहीनता का मातम था। सरकार जो चाह रही थी,कर रही थी। सरकार की आलोचना करने या उसके खिलाफ जनान्दोलन करने की हालत में कोई भी शक्ति साबूत नहीं थी। आन्दोलन के नाम पर गैर सरकारी संगठनों ही सक्रिय दिखाई दे रहे थे,जो वास्तव में सरकार के ही पैसे से जी रहे थे। निजी पूंजी,सरकारी कामकाज को सीधे तौर पर प्रभावित कर रही थी। इन्हीं दिनों एक निराशाजनक घटना हुई थी। तत्कालीन पूंजीपति अम्बानी बंधुओं में विवाद था। इस विवाद में पेट्रोलियम मंत्रालय पर आरोप लगा था। हालांकि यह मामला चीन के आक्रामक होते रुख,प्रधानमंत्री को दिखाई देते आतंकी हमले के खतरे और त्यौहारों के जश्न के बीच दब गया। कुल मिलाकर राजनीतिक मंच पर जो कुछ हो रहा था,जनता के बीच में निराशाजनक माहौल गहरा रहा था। विकल्पहीनता के चलते अपराध की दर बढ़ रही थी। नकली खाद्यपदार्थों सहित नकली दवाइयों और नकली खून तक का धंधा फैल रहा था। नवोदित बीमारी स्वाइन फ्लू को लेकर सरकारी पर अफरा-तफरी का माहौल था,जबकि उसी दौरान तपेदिक,हैजा,जापानी इंसेफलाइटिस जैसी बीमारियों से पूर्वी उत्तर प्रदेश में सैकड़ों की मौतें हो रही थी।
मीडिया भी राजनीति की तरह ही पथ से विचलित हो चुकी थी। रौशन दिल-बेदाग नजर की जिम्मेदारी कहीं पीछे छूट चुकी थी। उसकी हालत को कुछ यूं समझे सकते हैं। पूंजी,पत्रकारिता के सुंदर,कमसिन,जन-विश्वास से हृष्ट-पुष्ट और सुढौल शरीर देखकर वहसी नजर फैलाई हुए थी। अपनी हवस का शिकार बनाने की तैयारी कर जब पूंजी ने पत्रकारिता का हाथ पकड़ा तो पत्रकारिता बिना किसी प्रतिरोध के खुद ही निर्वस्त्र होकर उसकी गोद में जा बैठी। इसके अभिभावक जिंदगी की जद्दोजहद में पत्रकारिता के जरायम पेशा होने के मलाल से कुंठित हो गये और तर्क-कुतर्क का भेद मिटाकर मुक्त खोजने लगे। रजामंदी से हुए शील-भंग को जीवनरक्षक उपाय बताया जा रहा था। तर्क दिया जा रहा था कि मंदी जैसे मुश्किल दौर में जिंदगी को बचाये रखने की शर्त पर मालिक के साथ चंद मिनट का किया गया हास-परिहास भर है। हालांकि पत्रकारीय मूल्यों की अर्थी पर मालिकों के जेब भर रही थी। सालों से रुके हुए प्रोजेक्ट पर सरकारों से समझौते होने का रास्ता साफ हो रहा था। जिस सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के असर से खबर की शक्ल में विज्ञापन चलाए जाने लगे थे। यह सब वही पार्टी कर रही थी,जो पार्टी आजादी के बाद बहुसंख्यक साल सत्ता पर काबिज रही थी। उच्चतर व्यवहारों को आदर्श कहकर खारिज किया जा रहा था। निजीहित के लिए सर्वहित का गला दबाया जा रहा था। दुनियादारी की तमाम चीजों को पूंजी अपने विलास का सामान बना चुकी थी। इसमें लोगों की जिंदगी भी शामिल थी। ‘राज्य’ नाम का ‘समझौता’ बाजार के साथ गलबहियां डाले समंदर की सुनामी को लहर मान कर तफरी कर रहा था।
यह बीते हुए द्वापर युग का चीरहरण नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत का चीरहरण था। यहां दुस्शासन का काम पंचाली के पति कर रहे थे। पतियों में भारतीय लोकतंत्र के सभी स्तम्भ में सभी शामिल थे। जो पूंजी की द्यूतक्रीडा में अपनी अस्मिता के साथ बुद्धी तक हार चुके थे। और भूल चुके थे कि हमें इतिहास में दर्ज किया जा रहा है और जिसकी व्याख्या भविष्य में की जायेगी,तो हमें कहां खड़ा किया जाएगा ?