शनिवार, 5 दिसंबर 2009

एक तारीख या और कुछ

6 दिसम्बर,1992
17 साल पहले की इस तारीख ने जो कुछ देखा,उसने धर्मनिरपेक्ष भारत के भविष्य को उलझनों का शिकार बना दिया। आजादी के बाद हुए तमाम राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक बदलावों,यहां तक की इमरजेंसी ने भी देश की राजनीति को इतना गहरा नुकसान नहीं पहुंचाया था। क्योंकि इस घटना के बाद व्यवस्था का रंग ही कम्यूनल हो गया। आने वाले समय में देश की जनांकिकी की विचारधारा में बदलाव आया और मुखर साम्प्रदायिक ताकतों को शीर्ष-सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला। देश में 2002 की घटना हुई,जहां राजधर्म और धर्म का अंतर मिट गया था। जो देश की सर्वोच्च विधि-संविधान की मान्यताओं के खिलाफ था और आज भी है। देश ने देखा कि कैसे अल्पसंख्यक समुदाय को क्षति पहुंचाने का काम गैर-सरकारी गुटों ने सरकारी समर्थन से किया। उड़ीसा में पादरी और उनके मासूमों को जिंदा जलाने की घटना को देखा गया। कंधमाल की घटना यह साबित करने के लिए काफी है कि राजनीति में दिखने वाला वैचारिक मतभेद निहायत ही कमजोर है। आज बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक होने की दुराग्रही परिभाषाएं स्वीकार्य और सार्वजनिक हो चुकी हैं। कल तक जो बातें घरों के दरमियान जगह नहीं पाती थीं,आज मंचों से बोली जा रही हैं। हालांकि भारत में साम्प्रदायिकता की पहले भी कोई कमी नहीं थी। लेकिन आजादी के बाद की राजनीतिक ने इसे कम करने के बजाय इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया,जिसने काल के कपाल पर बाबरी मस्जिद विध्वंस का निशान छोड़ा है। आज अल्पसंख्यक होने का मतलब ही संदेह के घेर में होना है। इस लिहाज से समाचारों के चुनाव व उनकी लेखन शैली से लेकर फिल्मों,टी.वी.सीरियलों पर गौर किया जा सकता है। अपराधी होना या न होना धर्म के नजरिये से तय किया जा रहा है। खास किस्म की वेश-भूषा,यहां तक की व्यंजनों को साम्प्रदायिक टिप्पणियों से नवाजा जा रहा है। लोग इतने दुराग्रही कैसे हो गये ? सहकर्मी का अनुभव है कि एक फिल्म देखने के दौरान सीन बदलने के साथ-साथ लोग कमेंट करते जा रहे थे। जैसे...आ गये भाई लोग...फलां बिरयानी। बात आयी गई नहीं है। क्या गंगा-जमुनी तहजीब यही थी या फिर उसके कुछ और मायने थे। मल्टी प्लेक्स में बैठा उदारमना छवि रखने वाला वर्ग,जिसे मध्यम वर्ग कहा जाता है,यह कैसा बर्ताव कर रहा है। गौर करें 18 से 35 वर्ष की आयुवर्ग का व्यक्ति जो मल्टीफ्लेक्स का सफर कर रहा है,अपनी उम्र में सुने गये और देखे गये घटनाक्रमों के जरिये ही भाषा और व्वयहार तय कर रहा है। इस पर इतिहास की व्याख्याओं और बाबरी विध्वंस जैसी कई घटनाओं का असर है। राजनीतिक फलक के सभी साम्प्रदायिक अनुभवों को उसने बाल,किशोर और युवा मष्तिष्क से देखा है। यानी जो आज वह बोल रहा है,तुरंत की गढ़ी हुई परिभाषा नहीं है। बल्कि विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस जैसी संस्थाओं की कई वर्षों की मेहनत का परिणाम है,जिसे योगी आदित्यनाथ जैसे लोग विस्तार दे रहे हैं। किताबों में अकबर था और अशोक थे,का अंतर महसूस होता है। घर में आने जाने वालों के लिए बर्तन उसकी जाति और धर्म के लिहाज से तय होना अभी भारत के गांवों से मिटा नहीं है। परिवार के शाकाहारी होने का तर्क दिया जाता है,लेकिन बात वहां आकर फंस जाती,जब रिश्तेदार सर्वाहारी होता है। कहने का मतलब साफ है कि जहां पहले से ही इतना संकट मौजूद हो,वहां पर राजनीति के आदर्शों के डगमगाने का परिणाम सकारात्मक नहीं हो सकता है। ऐसे माहौल में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना ने मर्यादाओं की हदों को छिन्न-भिन्न कर दिया। जो कल एक साजिश थी,एक प्रयास के बतौर चल रही थी,आज व्यवस्था की प्रतिबद्धता में बदल चुकी है,जिसे आतंकवाद को खास समुदाय से जोड़ने के मामले में देखा जा सकता है। दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जांच न कराने के पीछे कारणों को तलाशा जा सकता है। इशरत जहाँ फर्जी एनकाउंटर से ज्यादा सक्षम सबूत और क्या होगा ?
बात खास समुदाय को निशाने पर लेने से आगे की है। क्योंकि व्यवस्था ने गैर-बराबरी पूर्ण समाजिक ढांचे को संरक्षित करने के लिए भय और हिंसा को अपना औजार बना लिया है। भय और हिंसा के माहौल को जीवित रखने के लिए जरुरी है कि देश के सामने हर समय एक के बाद एक नया शत्रु मौजूद रहे। जैसे अमेरिका को जीने के लिए युद्ध की जरूरत होती है। इसलिए वह लगातार नए युद्ध क्षेत्रों को खोज में रहता है। इस काम के लिए भारतीय व्यवस्था ने अपनी भौगोलिक सीमा को चुना है। शत्रुओं को तय करने का काम सत्ताधारी और गैर-सत्ताधारी,दोनों शक्तियां बराबर की भागीदार हैं। क्योंकि व्यवस्था के भीतर शक्तियों के बंटवारे में पक्ष व विपक्ष दोनों सत्ता का उपभोग करते हैं। यही कारण है कि जब भारतीय जनता पार्टी बाबरी मस्जिद गिराने के लिए अयोध्या में कारसेवकों को इकट्ठा कर रही थी,तो केंद्र की सत्ता ने एहतिहाती कदम उठाना तक जरूरी नहीं समझा था।
कुल मिलाकर 17 साल पहले के राजनीतिक हठकंडों में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। भय व विभाजन के फार्मूले पर ही काम हो रहा है। डेविड कोलमैन हेडली और तसुव्बुर राणा को मुम्बई हमले का जिम्मेदार बताते हुई रिपोर्ट सामने आ रही है। देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बढ़ती महंगाई और सत्ता के दमन पर कुछ भी बोलने के बजाय सम्भावित आतंकी हमलों की भविष्यवाणी कर रहे हैं। बावजूद इसके राजधानी में कई राज्यों के किसानों ने गन्ने के मूल्य पर प्रदर्शन किया। किसानों के प्रतिरोध के सामने सरकार को झुकना पड़ा और उसे अपना फैसला वापस लिया। मौजूदा सरकार को यह महसूस हो गया कि शायद जनता के बीच डर और विभाजन का असर कम होने लगा है और असल के मुद्दे उसकी समझ में आने लगे हैं। उसने बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले की जांच से जुड़ी रिपोर्ट लीक कर दी। खबर लीक होते ही सड़क से लेकर संसद तक लिब्रहान रिपोर्ट की चर्चा शुरू हो गई। यह सब कुछ लोक सभा का सत्र शुरू होने के साथ हुआ। लिब्रहान रिपोर्ट ने मौजूदा सरकार को महंगाई,भ्रष्टाचार के मामले में लिप्त मुध कोड़ा और गन्ना किसानों के मुद्दे पर खाल बचाने का मौका दे दिया है। यहीं एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि कांग्रेस व साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली पार्टियों में अंतर दिखावटी है। यह अलग बात है कि बाकी साम्प्रदायिकता को लेकर मुखर हैं और कांग्रेस इसका धीमा इस्तेमाल करती है। उदाहरण के लिए कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में एक क्षेत्रीय सदभावना कार्यक्रम आयोजित किया। जिसमें कई साधु-संतों को बुलाया गया था। कांग्रेस का आयोजन लगभग सभी चुनाव हार चुकी भाजपा के वोट बैंक के सामने अपना हिंदूवादी चेहरा सशक्त करने के लिए था। बाबरी विध्वंस तो एक घटना है,जिसके आगे-पीछे रोजाना नये-नये विध्वंस किये जा रहे हैं। लोक-जीवन समय बीतने के साथ विभाजित होता जा रहा है। बाबरी मस्जिद विध्वंस की व्याख्या किसी समुदाय विशेष के खिलाफ कार्रवाई के बतौर की जा सकती है,लेकिन यह उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है,जिसका मकसद भय और हिंसा के जरिए गैर-बराबरीपूर्ण सामाजित ढ़ांचे को कायम रखना है।
ईमेल-rishi2585@gmail.com

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

अहिस्ता बोलने वाले का अहिस्ता से चले जाना

शाम के करीब साढ़े पांच बजे यूएनआई की ऑफिस पहुंचना हुआ। यूनियन रूप में राजेश जी अपने किसी सहकर्मी के निधन पर बात कर रहे थे। शुरूआती बातचीत में उस व्यक्ति से अपरिचिय सा लगा,लेकिन नाम की जानकारी होते ही परिचय का सारा पिटारा खुल गया। अचानक भारतीय जनसंचार संस्थान और उस व्यक्ति से जुड़ी बातों की धुंधली तस्वीर उभरने लगी। क्योंकि धीमी आवाज में बोलने वाले राम कृष्ण पाण्डेय जी से पहला परिचय यहीं हुआ था। ये अलग बात है कि हम अति उत्सुकों को उनके पढ़ाने का अंदाज बहुत रास नहीं आया था। हालांकि बातें चाहे वह खबरों के चयन को लेकर हुईं हों या फिर मुश्किल समय की पत्रकारिता के तरीकों पर,हमारे लिए बेहद जरूरी थीं। कमी हमारी थी,क्योंकि हम जितने उत्साह में थे,उसमें किसी सुलझे हुए व्यक्ति को समझने का धैर्य नहीं था और यह बात किसी एक ही अध्यापक पर नहीं लागू हो रही थी। रामकृष्ण जी से आईआईएससी के बाद जब भी मिलना हुआ एक स्नेहिल स्पर्श लिए खैरियत पूछने वाले अभिभावक का अनुभव रहा। अभिभावक इसलिए क्योंकि इस महानगर में एतमिनान से कोई वरिष्ट दो मिनट बिना किसी हड़बड़ी के हाल पूछ ले,कम ही होता है।
अपने पीछे पत्नी और चार बच्चों जिसमें दो बेटियां और दो बेटों,का परिवार छोड़ गये रामकृष्ण पाण्डेय जी शुरूआती दौर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। जिसका असर रहा कि नौकरी बुहत ही देर से शुरू की। यूएनआई से रिटाटर होने के बाद बहुत ही कम पेंशन मिल रही थी। तब जो भी जानकारी मिली,वह दुःखद थी। उनका निधन हॉर्ट अटैक से हुआ । हार्ट अटैक की जानकारी होने में काफी देर लगी,शायद इतनी देर की कोई उपाय कारगर नहीं हो सके। उन्हें शुगर था,इसलिए हार्ट अटैक में होने वाला दर्द नहीं हुआ। जिसे साइलेंट हॉर्ट अटक कहा जाता है। उनके सहकर्मी बताते हैं कि उन्हें हॉर्ट से जुड़ी कुछ बीमारी थी,जिसको लेकर कई साल पहले डॉक्टर को भी दिखाया था। इस बीमारी के कई लक्षण उनमें थे,जैसे वे तेज चलने हांफने लगते थे,लेकिन किन्हीं कारणों से वे इसे छिपाते रहे। अंतर्मुखी होने का असर तो था ही और कुछ अन्य समस्याएं भी थीं।
उनसे ज्यादा बातचीत तो नहीं होती थी,हालाकि पत्रकारिता को जिंदा रखने के तरीकों पर राय हमें मिलती रहती थी। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन में ऐसे कई अनुभव संजोये थे। राजेश जी उनके बारे में बताते हैं कि सोच से निहायत ही सीधे किस्म के आदमी थे। कई मायनों में वे अपनी बातें दोस्तों से नहीं बांट पाते थे। शायद वे अपनी हर तकलीफ खुद में ही समेट लेना चाहते थे। यही कारण है कि उनकी बीमारी की जानकारी सभी को इतनी देर से लगी कि किसी के पास कुछ कर पाने का वक्त नहीं था। राजेश जी अपनी बात करते हुए यादों में चले जाते हैं। कहते हैं कि सरल स्वभाव के होने के बावजूद पत्रकारिता के तरीकों में रहते हुए वे अपनी बात कह लेने में माहिर थे। जब वे जनशक्ति अखबार का मुख्य पृष्ठ देख रहे थे,तो एक खबर को न छापने को लेकर दबाव आने लगा। संपादक तक ने उनसे खबर रोकने के लिए कहा और वे सभी से एक ही बात पूछते कि कौन सी खबर रोकनी है,जिसका जवाब किसी के पास नहीं था। और उनका तर्क था कि जब पता ही नहीं कि कौन सी खबर रोकनी है,तो मैं खबर कैसे रोक दूं और क्या यह जरूरी कि जो खबर मैं छापने जा रहा हूँ,उसी खबर को रोकने के लिए कहा जा रहा है। जबकि किस खबर को निशाने पर लिया जा रहा था,यह उन्हें बखूबी पता था। वे जानते थे कि ऐसे मामले में गोल-मटोल बातों से इशारा ही किया जाता है। इसी बात को बतौर तर्क इस्तेमाल करते वे खबर को मुख्य पृष्ठ पर छापना चाहते थे और खबर छपी भी। खबर थी कि एक युवक भाग रहा है और पुलिस पकड़ने के लिए खदेड़ रही है। वह युवक नसबंदी के लिए लाया गया था और इसकी फोटो भी आ चुकी थी।
एक और वाकया याद आ रहा है। हमारे सहपाठियों ने रामकृष्ण जी का अध्यापक होने के नाते पैर छूना चाहा। तो उन्होंने साफ शब्दों में मना कर दिया। कहा कि सम्मान के लिए पैर छूने की जरूरत नहीं है,बातचीत ही काफी है। जिससे साफ होता है कि वे सभी गैर-तार्किक बातों और रूढ़ियों का निजी स्तर पर भी विरोध करने में सक्षम थे। उनकी सार्वजनिक प्रतिबद्धता और निजी जीवन की असलियत में भेद नहीं था। आज रामकृष्ण पाण्डेय जी हमारे बीच भले सशरीर भले न हों,लेकिन उनके विचार हमें हमारी जिम्मेदारी का अहसास दिलाते रहेंगे।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

पत्रकारिता के एक युग का अंत

अम्बरीश कुमार

जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे .जनसत्ता जिसने हिंदी पत्रकारिता की भाषा बदली तेवर बदला और अंग्रेजी पत्रकारिता के बराबर खडा कर दिया .उसी जनसत्ता को बनाने वाले प्रभाष जोशी का कल देर रात निधन हो गया । दिल्ली से सटे वसुंधरा इलाके की जनसत्ता सोसाईटी में रहने वाले प्रभाष जोशी कल भारत और अस्ट्रेलिया मैच देख रहे थे । मैच के दौरान ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा । परिवार वाले उन्हें रात करीब 11.30 बजे गाजियावाद के नरेन्द्र मोहन अस्पताल ले गए , जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया । प्रभाष जोशी की मौत की खबर पत्रकारिता जगत के लिए इतनी बड़ी घटना थी कि रात भर पत्रकारों के फोन घनघनाते रहे । उनकी मौत के बाद पहले उनका पार्थिव शरीर उनके घर ले जाया गया फिर एम्स । इंदौर में उनका अंतिम संस्कार किया जाना तय हुआ है , इसलिए आज देर शाम उनका शरीर इंदौर ले जाया जाएगा ।
प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक थे।मालवा प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थीऔर जनसत्ता में देशज भाषा का नया प्रयोग भी उन्होंने किया । पत्रकार राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी उनके समकालीन थे। नई दुनिया के बाद वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और उन्होंने अमदाबाद और चंडीगढ़ में स्थानीय संपादक का पद संभाला। 1983 में दैनिक जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसने हिन्दी पत्रकारिता की भाषा और तेवर बदल दिया ।जनसत्ता सिर्फ अखबार नहीं बना बल्कि ९० के दशक का धारदार राजनैतिक हथियार भी बना। पहली बार किसी संपादक की चौखट पर दिग्गज नेताओ को इन्तजार करते देखा। यह ताकत हिंदी मीडिया को प्रभाष जोशी ने दी ,वह हिंदी मीडिया जो पहले याचक मुद्रा में खडा रहता था । इसे कैसा संयोग कहेंगे की ठीक एक दिन पहले लखनऊ में उन्होंने हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा .इंडियन एक्सप्रेस से उनका सम्बन्ध कैसा था इसी से पता चल जाता है . प्रभाष जोशी करीब 3० घंटे पहले चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे .आज यानी छह नवम्बर को तडके ढाई बजे दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे .मुझे लगा चक्कर आ जायेगा और गिर पडूंगा .चार नवम्बर को वे लखनऊ में एक कर्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे .मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अम्बरीश कुमार कहा है .यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ .मेरे दफ्तर पहुचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है .प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मे खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा .कुछ देर में प्रभाष जी दफ्तर आ गये .दफ्तर पहली मंजिल पर है फिर भी वे आये .करीब डेढ़ घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गाँधी आदि के बारे में बात कर पुराणी याद ताजा कर रहे थे. तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संसकरण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है .प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,दीपा आदि भी मौजूद थी .
तभी प्रभाष जी ने कहा .वाराणसी से यहाँ आ रहा हूँ कल मणिपुर जाना है पर यार दिल्ली में पहले डाक्टर से पूरा चेकउप कराना है.दरअसल वाराणसी में कार्यक्रम से पहले मुझे चक्कर आ गया था .प्रभाष जोशी की यह बात हम लोगो ने सामान्य ढंग से ली .पुरानी याद तजा करते हुए मुझे यह भी याद आया की १९८८ में चेन्नई से रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से मिलने को भेजा था तब मे बंगलोर के एक अखबार में था ..पर जब प्रभाष जोशी से मिलने इंडियन एक्सप्रेस के बहादुर शाह जफ़र रोड वाले दफ्तर गया तो वहां काफी देर बाद उनके पीए से मिल पाया .उनके पीए यानि राम बाबु को मैंने बतया की रामनाथ गोयनका ने भेजा है तो उन्होंने प्रभाष जी से बात की .बाद बे जवाब मिला -प्रभाष जी के पास तीन महीने तक मिलने का समय नहीं है ..ख़ैर कहानी लम्बी है पर वही प्रभाष जोशी बुधवार को मुझे देखने दफ्तर आये और गुरूवार को हम सभी को छोड़ गए .
लखनऊ के इंडियन एक्सप्रेस की सहयोगियों से मैंने उनका परिचय कराया तभी मौलश्री की तरफ मुखातिब हो प्रभाष जोशी ने कहा था -मेरा घर तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार में ही है .हम सब कुछ समझ नहीं पाए .उसी समय भोपाल से भास्कर के पत्रकार हिमांशु वाजपई का फोन आया तो हमने कहा-प्रभाष जी से बात कर रहा हु कुछ देर बात फोन करना . काफी देर तक बात होती रही पर आज उनके जाने की खबर सुनकर कुछ समझ नहीं आ रहा .भारतीय पत्रकारिता के इस भीष्म पितामह को हम कभी भूल नहीं सकते .मेरे वे संपादक ही नहीं अभिभावक भी थे..यहाँ से जाते बोले -अपनी सेहत का ख्याल रखो .बहुत कुछ करना है.प्रभाष जी से जो अंतिम बातचीत हुईं उसे हम जल्द देंगे .प्रभाष जोशी का जाना पत्रकारिता के एक युग का अंत है .

बुधवार, 4 नवंबर 2009

भविष्य की नजर में आज का दौर....

हर गुजरने वाला वक्त आने वाले वक्त की कहानी लिख रहा होता है। जब इनका दस्तावेजीकरण कर दिया जाता है तो इन्हीं कहानियों को इतिहास कहलाने का मौका मिलता है। और ये इतिहास आईने के बतौर असलियत दिखाने के लिए प्रतिबद्ध रहता है। कतई जरूरी नहीं कि इतिहास का अध्ययन केवल कामयाबियों पर चर्चा के लिए ही हो। आने वाले वक्त को पूरा हक बनता है कि वह गुजरे हुए दौर की नाकामयाबियों पर विस्तार से बात करे। भविष्य की इसी शर्त पर मौजूदा दौर को निहारने पर एक बेचैनी सी महसूस होती है। एक प्रश्न सामने होता है कि आज के दौर के इतिहास को भविष्य किन शब्दों में जांचेगा। यह सम्भव ही नहीं कि इसे अज्ञात कालखंड मानकर अंधयुग घोषित कर दे। यानी जो कुछ कहा-सुना जायेगा,उसमें आज की घटनाओं का ब्यौरा दर्ज होगा ही। कहा जायेगा कि स्वतंत्र भारत ने वह दौर भी देखा है,जब लोकतांत्रिक तानाशाही यानी इमरजेंसी के बाद देश का राजनीतिक फलक लगभग दीवालियेपन की तरफ बढ़ गया था। संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के खेल के लिए खुला छोड़ दिया गया था। उसके बाद देश में राजनीति के नाम पर जो कुछ भी हुआ,वह केवल वादों का विज्ञापन भर था। बिगड़ते हालात का अंदाजा इसी बात से लगा जा सकता है कि ‘नेता’ जैसा सम्बोधन गाली की तरह हो गया था। पेशेवर राजनीतिज्ञों की जगह पूंजीपतियों और अपराधिक मामलों में वांछित लोगों ने ले ली थी। देश की शीर्षस्थ राजनीति पर आंकड़ों के उन बाजीगरों और नौकरशाहों का वर्चस्व हो गया था,जो जनता की भूख और कल्याण जैसी बातें आंकड़ों की शक्ल में ही समझ सकते थे। यही कारण था कि खाद्यान्न की कमी न होने के बावजूद दाम आसमान छू रहे थे। मंहगाई ने लोगों के निवाले को छोटा कर दिया था,उस पर सरकारी स्तर के वादों का तुर्रा था कि मंहगाई रोकने के उपाय किये जाएंगे। किसान कर्ज के बोझ तले आत्महत्या करने को मजबूर थे। अगर योजनाओं की बात करें तो जनकल्याण के नाम पर सैकड़ों योजनाएं चल रही थीं,लेकिन जमीनी हकीकत भ्रष्टाचार की दलदल में समा चुकी थी। आजादी के साठ साल बाद शुरू किये गये सर्व शिक्षा अभियान के तहत प्राथमिक स्कूलों में मिड डे मील योजना चालू की गई थी। जिसमें प्रति बच्चे दो रुपये सात पैसे की दर से धन मुहैय्या कराया जा रहा था। जो मंहगाई के चलते भूख और गरीबी का उपहास भर था। क्योंकि सन 2009 में देश की राजधानी सहित कई बड़े शहरों में दालों की कीमत 100 रूपये प्रति किलो तक पहुंच गई थी। ये मंहगाई कोई एक दो दिन की बात नहीं थी,दाल कई महीनों तक अपने दोगुने मूल्य पर बिक रही थी। दिल्ली की सरकारी बस सेवा ने घाटे से उबरने के नाम पर राजधानी में बसों के किराये भी बढ़ा दिये थे। किराया बढ़ोत्तरी ने लोगों की जेब खाली करना शुरू कर दिया था। यह सब उससमय हो रहा था,जब मंदी के सहारे पूंजीवर्ग अपने लाभ को अधिकतम करने की मंशा से छंटनी कर रहा था।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में राजनीति की अलग ही बयार बह रही थी। एक दिन की अच्छी बरसात के बाद सड़कों पर छह-छह घंटे का जाम लग गया था। जिस पर सूबे की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बयान दिया था कि जाम तो होगा ही,इसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ। वर्ष 2009 के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से दिया गया प्रधानमंत्री का भाषण कई मायनों में ऐतिहासिक था। उस समय देश के राजनेता सिर्फ एतिहासिक भाषण देने का ही इतिहास रच रहे थे।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे,जिनके भाषण को किसी कम्पनीनुमा राजनीतिक पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में अपने निवेशकों को दिया गया सम्बोधन कहा गया। हालांकि उस दौर में सरकारी नुमाईंदों ने सुनने से ध्यान हटाकर सिर्फ कहने पर केंद्रित कर दिया था। यही कारण था कि देश की बहुसंख्यक आबादी असमंजस की जिंदगी जीने को मजबूर थी। देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री मायावती थी,जिनकी राजनीति बुत की राजनीति में तब्दील हो चुकी थी। हैरान करने वाली जानकारी है कि मायावती महोदया ने खुद अपनी मूर्तियां बनवाकर चौराहों व अन्य जगहों पर रखवाई थीं। वैसे यह ऐतिहासिक काम था। क्योंकि जीते जी मकबरा बनवाने की परम्परा तो भारत के इतिहास में मिलती है।
देश के 2009 हुए में आम चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी और उसके घटक दल को बहुमत मिला था। मंत्रिमंडल में दो दर्जन से अधिक ऐसे मंत्रियों को शपथ दिलाई गई थी,जिनको राजनीति का व्यवसाय विरासत में मिला था। कई टिप्पणीकारों ने तत्कालीन मंत्रिपरिषद को ‘कुनबा कैबिनेट’ का नाम दिया था। यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र के काफी अहम साबित हुआ। क्योंकि इस चुनाव में वामपंथी अपनी जमीन गवां बैठे थे और संसद के भीतर विपक्ष के नाम पर मौजूद भारतीय जनता पार्टी आन्तरिक कलह का शिकार हो गई थी। जिसके चलते पूरी संसदीय व्यवस्था में विपक्षहीनता का मातम था। सरकार जो चाह रही थी,कर रही थी। सरकार की आलोचना करने या उसके खिलाफ जनान्दोलन करने की हालत में कोई भी शक्ति साबूत नहीं थी। आन्दोलन के नाम पर गैर सरकारी संगठनों ही सक्रिय दिखाई दे रहे थे,जो वास्तव में सरकार के ही पैसे से जी रहे थे। निजी पूंजी,सरकारी कामकाज को सीधे तौर पर प्रभावित कर रही थी। इन्हीं दिनों एक निराशाजनक घटना हुई थी। तत्कालीन पूंजीपति अम्बानी बंधुओं में विवाद था। इस विवाद में पेट्रोलियम मंत्रालय पर आरोप लगा था। हालांकि यह मामला चीन के आक्रामक होते रुख,प्रधानमंत्री को दिखाई देते आतंकी हमले के खतरे और त्यौहारों के जश्न के बीच दब गया। कुल मिलाकर राजनीतिक मंच पर जो कुछ हो रहा था,जनता के बीच में निराशाजनक माहौल गहरा रहा था। विकल्पहीनता के चलते अपराध की दर बढ़ रही थी। नकली खाद्यपदार्थों सहित नकली दवाइयों और नकली खून तक का धंधा फैल रहा था। नवोदित बीमारी स्वाइन फ्लू को लेकर सरकारी पर अफरा-तफरी का माहौल था,जबकि उसी दौरान तपेदिक,हैजा,जापानी इंसेफलाइटिस जैसी बीमारियों से पूर्वी उत्तर प्रदेश में सैकड़ों की मौतें हो रही थी।
मीडिया भी राजनीति की तरह ही पथ से विचलित हो चुकी थी। रौशन दिल-बेदाग नजर की जिम्मेदारी कहीं पीछे छूट चुकी थी। उसकी हालत को कुछ यूं समझे सकते हैं। पूंजी,पत्रकारिता के सुंदर,कमसिन,जन-विश्वास से हृष्ट-पुष्ट और सुढौल शरीर देखकर वहसी नजर फैलाई हुए थी। अपनी हवस का शिकार बनाने की तैयारी कर जब पूंजी ने पत्रकारिता का हाथ पकड़ा तो पत्रकारिता बिना किसी प्रतिरोध के खुद ही निर्वस्त्र होकर उसकी गोद में जा बैठी। इसके अभिभावक जिंदगी की जद्दोजहद में पत्रकारिता के जरायम पेशा होने के मलाल से कुंठित हो गये और तर्क-कुतर्क का भेद मिटाकर मुक्त खोजने लगे। रजामंदी से हुए शील-भंग को जीवनरक्षक उपाय बताया जा रहा था। तर्क दिया जा रहा था कि मंदी जैसे मुश्किल दौर में जिंदगी को बचाये रखने की शर्त पर मालिक के साथ चंद मिनट का किया गया हास-परिहास भर है। हालांकि पत्रकारीय मूल्यों की अर्थी पर मालिकों के जेब भर रही थी। सालों से रुके हुए प्रोजेक्ट पर सरकारों से समझौते होने का रास्ता साफ हो रहा था। जिस सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के असर से खबर की शक्ल में विज्ञापन चलाए जाने लगे थे। यह सब वही पार्टी कर रही थी,जो पार्टी आजादी के बाद बहुसंख्यक साल सत्ता पर काबिज रही थी। उच्चतर व्यवहारों को आदर्श कहकर खारिज किया जा रहा था। निजीहित के लिए सर्वहित का गला दबाया जा रहा था। दुनियादारी की तमाम चीजों को पूंजी अपने विलास का सामान बना चुकी थी। इसमें लोगों की जिंदगी भी शामिल थी। ‘राज्य’ नाम का ‘समझौता’ बाजार के साथ गलबहियां डाले समंदर की सुनामी को लहर मान कर तफरी कर रहा था।
यह बीते हुए द्वापर युग का चीरहरण नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत का चीरहरण था। यहां दुस्शासन का काम पंचाली के पति कर रहे थे। पतियों में भारतीय लोकतंत्र के सभी स्तम्भ में सभी शामिल थे। जो पूंजी की द्यूतक्रीडा में अपनी अस्मिता के साथ बुद्धी तक हार चुके थे। और भूल चुके थे कि हमें इतिहास में दर्ज किया जा रहा है और जिसकी व्याख्या भविष्य में की जायेगी,तो हमें कहां खड़ा किया जाएगा ?

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

इलाहाबाद में गंगा के कछार की मध्यधारा में

इलाहाबाद में गंगा के कछार की मध्यधारा में सामूहिक रूप से कासा काटने को लेकर अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के नेतृत्व में किसानों के आन्दोलन को स्थानीय मीडिया ने नक्सली हिंसा करार दिया. जबकि ये किसान केवल अपने परम्परागत हसिया और लाठी के साथ प्रदर्शन कर रहे थे. वही जब किसानों के आन्दोलन के जवाब में खनन माफियाओं की तरफ से बजरंग दल के गुंडों ने खुलेआम असलहों के साथ प्रदर्शन किया तो इसे लाल सलाम से निपटने की रणनीति बताया गया. नक्सलवाद के खिलाफ चलाई जा रही सरकारी मुहीम में मीडिया की भूमिका पहले से सरकारी एजेंसी की तरह है. इलाहबाद की मीडिया इससे आगे बढ़कर पुलिस के इशारे पर बजरंग दल और खनन माफियाओं के पक्ष में खड़ी है. प्रस्तुत है मीडिया की इस भूमिका के खिलाफ किसान आन्दोलन की खबर - मोडरेटर

13.10.09

अमर उजाला की खबर मनगढ़ंत

अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने हिन्दी दैनिक अमर उजाला द्वारा फ्रंट पेज रिपोर्ट ‘लाल सलाम की खूनी जंग’’ की कड़ी निन्दा करते हुए कहा है कि यह रिपोर्ट प्रेरित तथा विद्वेषपूर्ण है। रिपोर्ट में कहा गया है कि लाल सलाम ने मुखबिरी के शक में हाथ का पंजा काट डाला। यह तथ्यहीन भी है और जानबूझकर संगठन को बदनाम करने व ऐसी धारणा पैदा करने, कि कोई गहरा षडयंत्राकारी काम संगठन कर रहा है, से प्रेरित है। यह मीडिया नैतिकता के भी विरूद्ध है।

11 अक्टूबर को नन्दा का पूरा गांव में लाल सलाम की एक बड़ी जनसभा थी जिसमें करीब 2000 लोगों ने भाग लिया। जिला अधिकारी कौशाम्बी को घाटों का निरीक्षण करने आना था। पिछले 1 अक्टूबर से ए0आई0के0एम0एस0 कार्यकर्ता घाटों को भ्रष्ट जिला पंचायत व ठेकेदारों की मनचाही वसूली से मुक्त कराकर नम्बर बांधकर घाटों को खुद चला रहे हैं। इससे उतरवाई की दरें सीधा 66 फीसदी घटा दिया है।

यद्यपि किन्हीं कारणों से जिला अधिकारी नन्दा का पूरा नहीं पहुंचे, घाटों पर हासिल इस विजय से लोग जोश और उत्साह के साथ अपनी बैठक करके वापस लौटे।

बैठक के बाद भकन्दा गांव के कुछ लोग आपस में लड़ गए जो पुरानी रंजिश से प्रेरित था। रामभवन को चोट आई और ए0आई0के0एम0एस0 उपाध्यक्ष छेदी लाल तथा महासचिव फूलचन्द के बीचबचाव से उसे बचा कर सीधा अस्पताल भेजा गया। ए0आई0के0एम0एस0 के शिवलाल तथा कल्लू खुर्द उसे लेकर गए तथा रामबालक, राजकुमार, गणेश, ओमप्रकाश तथा भिन्टू के विरूद्ध उनका केस दर्ज कराया। आज वो अपनी सुसराल, सराय अकील में रहकर उपचार करा रहा है।

इस घटना को अमर उजाला ने कहा कि ‘‘दाहिना हाथ पंजे से कट गया है’’, ‘‘मरणासन हालत में भरती कराया गया है’’, ‘‘कथित मजदूर संगठन के नेता खामोश हैं, उनके माबाइल स्विच आफ कर लिए हैं’’, ‘‘मुखबिरी के संदेह में अपने ही साथी को किया लहूलुहान’’, आदि।

सच यह है कि रामभवन का दाहिना हाथ पंजे से नहीं कटा है। उसे मुखबीर तो अखबार ने बना दिया पर यह नहीं लिखा कि उसका इलाज व एफ0आई0आर0 लाल सलाम के लोगों ने ही लिखवाया। बाद में रामबालक आदि की सदस्यता को भी सस्पेण्ड किया गया। और कार्यालय का उपरोक्त लिखा हुआ फोन तो हमेशा चालू रहता है और मोबाइल भी चालू रहे हैं, अगर बत्ती के अभाव में डिसचार्ज न हुए हों।

ए0आई0के0एम0एस0 इस विज्ञप्ति द्वारा एक सार्वजनिक अपील करती है कि तथ्यों को मजदूरों के विरूद्ध तोड़मरोड़ कर पेश न किया जाए। यह न केवल अनैतिक है, ये उन मेहनतकश मजदूरों को लम्बा नुकसान पहुंचाती है, जो खुद अपना पेट काटकर दूसरों का आराम सुनिश्चित करते हैं, खास तौर पर उन लोगों का जो दूसरों की ही मेहनत पर जिंदा हैं। यही नहीं इससे लाभ भी माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों को होता है जो देश की जनता के दुश्मन हैं।

27.10.09

अखबारों ने फर्जी खबरे छपी

अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा (ए0आई0के0एम0एस0) ने संगठन द्वारा हिंसा करने की प्रेस रिपोर्टों की निन्दा करते हुए कहा है कि बिना किसी घटना हुए ही इस तरह की रिपोर्टों के छपने का उद्देश्य संगठन को बदनाम करने के लिए है और जनबूझकर पुलिस ऐसी रिपोर्टें छपवा रही है। सभा के प्रदर्शनों में भी हिंसा की कोई वारदात आज तक सामने नहीं आयी है।

अगर उसे ‘हिंसा’ कहा जा सके तो हिंसा की एक मात्रा घटना मजदूरों द्वारा मशीन और लोडर रोकने की है, जो किसानों और मजदूरों को उजाड़ रही थीं, और साथ में रवन्ने का गैर कानूनी कर तथा रायल्टी रोकने की। मशीनें, रायल्टी तथा अतिरिक्त रवन्ना चार्ज सब गैर कानूनी है और इसे रोकने की जिम्मेदारी पुलिस की है। अप्रैल 2008 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की खण्डपीठ ने भी कहा कि उप खनिजों में पारम्परिक समुदायों को काम रोकने वाली मशीनें गैर कानूनी है और सरकार को इन्हें रोकना चाहिए।

इसके साथ किसान सभा ने उतरवाई में लिए जाने वाले टोल कर तथा मेलों में अतिरिक्त तहबाजाारी रोकने का प्रयास किया। यद्यपि किसान सभा कुछ हद तक सफल हुई, उसके कार्यकर्ता बड़े ठेकेदारों और पुलिस के हमले के निशाने पर बने रहे। पुलिस ने नेताओं पर कई फर्जी मुकदमें भी दर्ज किए ह। हाल में आई0जी0 ने नेताओं पर धारा 384 के अन्तर्गत, एक्सटार्शन का केस दर्ज करा दिया। जबकि नेता किसी से भी पैसा नहीं वसूलते और जो ठेकेदार गैर कानूनी वसूली करते ह. उनमें से एक पर भी ऐसा केस दर्ज नहीं हुआ।

केवल अपने खाल बचाने के लिए पुलिस किसान मजदूर सभा द्वारा हिंसा की कहानियां छपवा रही है। वो सभा द्वारा हिंसा की एक भी घटना नहीं गिना सकती फिर भी जोर-शोर से लाल सलाम की हिंसा, हथियारों का इस्तेमाल, की बातें लिखी जा रही ह। यह समझना जरूरी है कि आम लोग गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए लाठी लेकर गांव से चलते ह। पुलिस चाहती है कि वो इन्हें रोक दे और सामन्ती गुण्डों के हमले का आसान शिकार बन जाएं।

पुलिस क्षेत्रा में दुर्भावना फैलाने और ए0आई0के0एम0एस0 नेताओं पर हमले प्रेरित करने के लिए इस तरह की कहानियां छपवा रही है। एस0ओ0 घूरपुर सतपाल सिंह ने मेले में बजरंग दल कार्यकर्ताओं द्वारा ऐसे हमले करवाए। 25 अक्टूबर 2009 को बजरंग दल नेता मणी जी तिवारी के नेतृत्व में एस0ओ0 ने गैरकानूनी बन्दूकों के साथ बजरंग दल का प्रदर्शन करवाया। न तो बजरंग दल पर कार्यवाही हुई और न ही एस0ओ0 पर। हालांकि ये बन्दूकें गैर कानूनी है।

सुरेश चन्द्र,
महासचिव,
अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

राजनीति की कमजोर होती शर्तें

ऋषि कुमार सिंह
उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल सहित नेपाल से लगा हुआ तराई इलाका,विस्तार लेते हुए धर्मोन्माद की चपेट में है। अशिक्षा और राजनैतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार से जूझ रहे तराई के बहराइच और श्रावस्ती जैसे जिले साम्प्रदायिक ताकतों के निशाने पर हैं। जिसकी ताजा मिसाल बहराइच की है,जहां दुर्गा-पूजा को लेकर जगह-जगह विवाद सामने आया है। हालांकि ये विवाद अचानक नहीं खड़े हुए हैं,बल्कि इसके लिए सुनियोजित तरीके से काम किया गया है। जिसके राजनीतिक निहितार्थ काफी सशक्त हैं।
पिछले साल श्रावस्ती जिले के खलीफतपुर गांव में दुर्गा-प्रतिमा के विसर्जन को लेकर साम्प्रदायिक तनाव पैदा हो गया था। खलीफतपुर में पूजा-प्रतिमा को गांव में ही विसर्जित करने पर समितियों और प्रशासन के बीच सहमति बन गई थी,लेकिन विसर्जन के समय समितियों ने नासिरपुर में दूसरी प्रतिमाओं के साथ विसर्जन करने की योजना बना डाली। जिससे प्रशासन के सामने संकट पैदा हो गया और भीड़ से निपटने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी थी। पिछले साल की इस घटना को ध्यान में रखते हुए बहराइच जिला प्रशासन ने इस बार ग्यारह नई जगहों पर प्रतिमाओं को स्थापित करने की इजाजत नहीं दी। जिसको लेकर प्रशासन और दुर्गा-पूजा समितियों के बीच गतिरोध कई दिनों तक बरकरार रहा। गौरतलब है कि यहां की दुर्गा-पूजा समितियां सीधे तौर पर राजनीतिक पार्टियों से सम्बद्ध लोगों की अध्यक्षता में काम कर रही हैं। इसलिए दुर्गा पूजा और विवादों के राजनीतिक निहातार्थ का पक्ष भी का कर रहा है। प्रशासन के सचेत रहने के वावजूद खलीफतपुर गांव की ही तर्ज पर इस बार बहराइच में कई जगहों पर साम्प्रदायिक-तनाव भड़काने की कोशिश की गई। बहराइच के रुपईडीहा और हुजूरपुर थाना क्षेत्र में ज्यादा घटनाएं सामने आयीं है। जिला मुख्यालय से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर बसे हेमरिया और हुसैनपुर गांव का सामाजिक तानाबाना साम्प्रदायिकता की आग में झुलसते-झुलसते बचा। यादव बाहुल्य हेमरिया गांव में दुर्गा पूजा के लिए मूर्ति की स्थापना का यह दूसरा मौका था। हुसैनपुर गांव के जिस रास्ते से विसर्जन के लिए दुर्गा-प्रतिमा को नदी तक ले जाना था,उस पर लोगों को आपत्ति थी। जहां तक आपत्ति का सवाल है,तो इसे जगह-जगह पर मूर्तियों की स्थापना के जरिए लोगों की धार्मिक अस्मिता की जानकारी देने वाली प्रक्रिया का प्रतिक्रियात्मक पहलू ही माना जाना चाहिए। नाजुक होते हालात के मद्देनजर प्रशासन ने वैकल्पिक रास्ते से प्रतिमा-विसर्जन करने का इंतजाम किया,लेकिन बीजेपी नेताओं के हस्तक्षेप के बाद वैकल्पिक रास्ते का इस्तेमाल न करने की जिद से संकट गहरा गया। फिलहाल प्रशासन,स्थानीय लोगों की मदद से प्रतिमा का विसर्जन कराने में सफल रहा। लेकिन बाहरी तौर पर शांतिपूर्वक ढंग से निपटने वाला यह लम्बे समय की अशांति और हलचलों को जन्म दे गया है। क्योंकि इस पूरी घटना ने स्थानीय चर्चा का माहौल बदल दिया है। खेती-किसानी,स्थानीय दिक्कतों और बेदम होती राजनीति की चर्चा करने वाली जनता अब धर्म के मुद्दे से जूझ रही है। चर्चाओं की छोर और उससे जुड़ते मुद्दों का बदल जाना देखने में भले ही सामान्य घटना लगती हो,लेकिन परिणाम के स्तर पर सामान्य होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। चर्चाओं का असर देर-सवेर जनता के व्यवहार पर जरूर आता है। इन बातों में वही राजनीतिक निहीतार्थ काम कर रहा है,जो औपनिवेशिक शासन के दौरान बांटो और राज करो के रूप में सक्रिय था। हेमरिया गांव में हुई घटना से उसके आस-पास के इलाके में जो जमीनी बदलाव दिखाई दे रहे हैं या आने वाले समय में स्पष्ट हो जाऐंगे,उसके बारे में सिर्फ अनुमान किया जा सकता है। समय बीतने के साथ इस ग्राम्य समाज में धर्मोन्माद की गंध पहले से ज्यादा हावी हो चुकी होगी। आने वाली दुर्गा पूजा में प्रतिमाओं की भव्यता और लोगों का जमावड़ा भी विस्तार ले चुका होगा। इस बार असफल रहे कथित नेता इस मामले को अस्मिता से प्रश्न से जोड़ते हुए अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने की जुगत में होंगे। हर लिहाज से पिछड़े इलाकों में दुर्गा-पूजा और रामलीलाओं के विस्तार लेते आयोजनों से साफ है कि लोगों को बड़े पैमाने पर इस तरह की आवश्यकताओं से परिचित कराया गया है। लेकिन इस परियोजना का ढांचा क्षेत्रीय नहीं,राष्ट्रीय है। कल तक जिन चौराहों पर कीर्तन नहीं होता था,आज वहां बाकायदा बड़ी-बड़ी मूर्तियां रखी जा रही हैं। इसके अलावा नुक्कड़ों,चौराहों और गलियों में होने वाले नए धार्मिक निर्माणों की भी संख्या बढ़ी है। तुलनात्मक रुप से यही हाल अन्य धर्मों के नए निर्माणों का है। गुरूद्वारा और मस्जिदों के बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। बढ़ते धार्मिक स्थलों जिस राजनीति को प्रश्रय मिलने की उम्मीद है,उसमें केवल भारतीय जनता पार्टी ही खिलाड़ी नहीं है। बल्कि इस बंदर बांट में लगभग सभी पार्टियां भागीदार हैं। बहराइच में पिछले कई चुनावों में देखा गया है कि विधानसभा और लोक सभा सीटों पर हार जीत का अंतर तेजी से घटा है। 2007 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को सीधे तौर पर नुकसान हुआ है। जिले की कुल सात सीटों में दो सीट समाजवादी पार्टी के पास और एक बीजपी के पास बची रह पायी। जबकि बाकी चार सीटों पर बहुजन समाजवादी पार्टी ने अपना अप्रत्याशित कब्जा जमाया। लेकिन लोक सभा चुनाव तक बसपा इस खिसकते हुए वोट को बचाये रख पाने में विफल रही। जिसका लाभ कांग्रेस को हुआ और अनुमान के विपरीत इस इलाके की सीट कांग्रेस के हाथ में चली गई। कुल मिलाकर यह माना जा रहा है कि विधानसभा चुनावों के समय साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कमजोर होने से आया विखराव लोक सभा चुनावों तक बसपा के पास से निकलकर कांग्रेस के खाते में चला गया। विधान सभा चुनाव 2007 में भाजपा ने जिस सीट पर जीत दर्ज की,वह इलाका सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक घटनाओं से जुड़ा़ हुआ है। खासकर त्यौहारों के दरमियान तो अक्सर ही इस तरह की घटनाएं हो जाती है। इस साल भी सबसे पहला साम्प्रदायिक मनमुटाव इसी क्षेत्र में सामने आया है। इस मनमुटाव को भुनाते हुए कई चुनावों से समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच अदला-बदली चलती रही है। लेकिन लोक सभा चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता ने दोनों पार्टियों को चौकन्ना कर दिया है। साथ में यह भी माना जा रहा है कि बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में मुस्लिम और दलित वोट बैंक का कांग्रेस की तरफ रूझान गया है। जिसकी बदौलत कांग्रेस का पुनर्जन्म हो रहा है। क्योंकि इस बार के लोक सभा चुनाव में मुस्लिम और दलित वोटों का कांग्रेस की तरफ रूझान गया है। जिसका सबूत है कि कांग्रेस ने बहराइच लोकसभा सीट पर अपनी जीत दर्ज की है। जबकि पिछले कई चुनावों में यह सीट सपा और भाजपा के खाते में रहती थी। वोटों के गठजोड़ के प्रकाश में ताजा घटनाओं को देखना खासा दिलचस्प हो जाता है। यानी समझदारी के तहत सपा और भाजपा मिलकर नूराकुश्ती का आयोजन कर रही हैं। इसमें इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जिस दौरान यहां साम्प्रदायिक मनमुटाव को उकसाने की कोशिश हुई है,उसी समय राहुल गांधी तराई के इन जिलों के दौरे पर थे। यानी तनावों के जरिए राहुल की गुपचुप यात्रा और दलित गांवों के दौरे से कांग्रेस के पक्ष में जा रहे लाभ को विफल करने की कोशिश भी की जा रही है।

साम्प्रदायिक राजनीति को सामंती मानसिकता और दशकों के प्रशिक्षण से तैयार हुए एजेंट नई दिशा दे रहे हैं। जिसका उदाहरण वे जनसंचार माध्यम हैं,भाषा और खबरों का चयन लोगों के भीतर साम्प्रदायिक राजनीति की मांग को जन्म देती है। क्योंकि लोगों के बीच जैसे-जैसे धार्मिक विश्वास बढ़ेगा,वैसे-वैसे उनका राजनीतिक रुझान धर्म आधारित राजनीति की तरफ होने लगेगा। इससे एक तरफ बहुधर्मी समाज की समरसता पर असर आयेगा,तो दूसरी तरफ जन-समस्याओं के राजनैतिक समाधान को लेकर उठने वाली मांग को भी दबाया जा सकेगा। इसे उत्तर प्रदेश की राजनीति से बखूबी समझ सकते हैं। पूर्वांचल में ही हर साल सैकड़ों लोग दिमागी बुखार(जापानी इंसेफलाइटिस) से अस्पताल-दर-अस्पताल भटकते हुए मर जाते हैं। साम्प्रदायिक ताकतों के प्रभाव में जो जनमानस मूर्तियों के लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाता है,वही जनमानस बेहतर इलाज की मांग के लिए कभी कोई प्रदर्शन या दबाव नहीं बनाता है,विकल्प के रूप में धार्मिक स्थानों का रुख कर लेता है। यह एक तरह से आसान भी है क्योंकि अस्पतालों से ज्यादा धार्मिक स्थलों की उपलब्धता है। यह जानते हुए भी कि जनता को गुणवत्तापूर्ण जीवन देने का दायित्व राज्य के अस्तित्व का प्रश्न है,पूरे मसले में समग्र राजनीति का अभाव देखा जा सकता है। साम्प्रदायिक और गैर-साम्प्रदायिक ताकतों का खेमा तैयार कर जनता को नूराकुश्ती का तमाशबीन बना दिया गया है। पहले,दूसरे और तीसरे पायदानों पर खड़ी पार्टियों में जो कुछ भी अंतर दिखाई देता है,वह दिन-प्रतिदिन की छद्म होती राजनीति के दरवाजे पर लटका हुआ परदा भर है। मौजूदा राजनीति के सभी खिलाड़ियों को पता है कि अगर बदलाव के लिए कोई राजनीति की गई और उसका असर हो गया,तो जिस तरह की सतही राजनीति की जा रही है,उसकी कोई जगह रह जाएगी और न ही संवैधानिक दायित्वों को नकार कर राजनीति करने का अवसर उपलब्ध होगा। खासकर बहराइच जैसे इलाकों में जहां की शिक्षा,स्वास्थ्य और प्रशासनिक लापरवाही जैसे समस्याओं को नजरंदाज कर साम्प्रदायिक रानजीति करने की कोशिशें आजादी के बाद से जारी है।

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