शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

इलाहाबाद में गंगा के कछार की मध्यधारा में

इलाहाबाद में गंगा के कछार की मध्यधारा में सामूहिक रूप से कासा काटने को लेकर अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के नेतृत्व में किसानों के आन्दोलन को स्थानीय मीडिया ने नक्सली हिंसा करार दिया. जबकि ये किसान केवल अपने परम्परागत हसिया और लाठी के साथ प्रदर्शन कर रहे थे. वही जब किसानों के आन्दोलन के जवाब में खनन माफियाओं की तरफ से बजरंग दल के गुंडों ने खुलेआम असलहों के साथ प्रदर्शन किया तो इसे लाल सलाम से निपटने की रणनीति बताया गया. नक्सलवाद के खिलाफ चलाई जा रही सरकारी मुहीम में मीडिया की भूमिका पहले से सरकारी एजेंसी की तरह है. इलाहबाद की मीडिया इससे आगे बढ़कर पुलिस के इशारे पर बजरंग दल और खनन माफियाओं के पक्ष में खड़ी है. प्रस्तुत है मीडिया की इस भूमिका के खिलाफ किसान आन्दोलन की खबर - मोडरेटर

13.10.09

अमर उजाला की खबर मनगढ़ंत

अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा ने हिन्दी दैनिक अमर उजाला द्वारा फ्रंट पेज रिपोर्ट ‘लाल सलाम की खूनी जंग’’ की कड़ी निन्दा करते हुए कहा है कि यह रिपोर्ट प्रेरित तथा विद्वेषपूर्ण है। रिपोर्ट में कहा गया है कि लाल सलाम ने मुखबिरी के शक में हाथ का पंजा काट डाला। यह तथ्यहीन भी है और जानबूझकर संगठन को बदनाम करने व ऐसी धारणा पैदा करने, कि कोई गहरा षडयंत्राकारी काम संगठन कर रहा है, से प्रेरित है। यह मीडिया नैतिकता के भी विरूद्ध है।

11 अक्टूबर को नन्दा का पूरा गांव में लाल सलाम की एक बड़ी जनसभा थी जिसमें करीब 2000 लोगों ने भाग लिया। जिला अधिकारी कौशाम्बी को घाटों का निरीक्षण करने आना था। पिछले 1 अक्टूबर से ए0आई0के0एम0एस0 कार्यकर्ता घाटों को भ्रष्ट जिला पंचायत व ठेकेदारों की मनचाही वसूली से मुक्त कराकर नम्बर बांधकर घाटों को खुद चला रहे हैं। इससे उतरवाई की दरें सीधा 66 फीसदी घटा दिया है।

यद्यपि किन्हीं कारणों से जिला अधिकारी नन्दा का पूरा नहीं पहुंचे, घाटों पर हासिल इस विजय से लोग जोश और उत्साह के साथ अपनी बैठक करके वापस लौटे।

बैठक के बाद भकन्दा गांव के कुछ लोग आपस में लड़ गए जो पुरानी रंजिश से प्रेरित था। रामभवन को चोट आई और ए0आई0के0एम0एस0 उपाध्यक्ष छेदी लाल तथा महासचिव फूलचन्द के बीचबचाव से उसे बचा कर सीधा अस्पताल भेजा गया। ए0आई0के0एम0एस0 के शिवलाल तथा कल्लू खुर्द उसे लेकर गए तथा रामबालक, राजकुमार, गणेश, ओमप्रकाश तथा भिन्टू के विरूद्ध उनका केस दर्ज कराया। आज वो अपनी सुसराल, सराय अकील में रहकर उपचार करा रहा है।

इस घटना को अमर उजाला ने कहा कि ‘‘दाहिना हाथ पंजे से कट गया है’’, ‘‘मरणासन हालत में भरती कराया गया है’’, ‘‘कथित मजदूर संगठन के नेता खामोश हैं, उनके माबाइल स्विच आफ कर लिए हैं’’, ‘‘मुखबिरी के संदेह में अपने ही साथी को किया लहूलुहान’’, आदि।

सच यह है कि रामभवन का दाहिना हाथ पंजे से नहीं कटा है। उसे मुखबीर तो अखबार ने बना दिया पर यह नहीं लिखा कि उसका इलाज व एफ0आई0आर0 लाल सलाम के लोगों ने ही लिखवाया। बाद में रामबालक आदि की सदस्यता को भी सस्पेण्ड किया गया। और कार्यालय का उपरोक्त लिखा हुआ फोन तो हमेशा चालू रहता है और मोबाइल भी चालू रहे हैं, अगर बत्ती के अभाव में डिसचार्ज न हुए हों।

ए0आई0के0एम0एस0 इस विज्ञप्ति द्वारा एक सार्वजनिक अपील करती है कि तथ्यों को मजदूरों के विरूद्ध तोड़मरोड़ कर पेश न किया जाए। यह न केवल अनैतिक है, ये उन मेहनतकश मजदूरों को लम्बा नुकसान पहुंचाती है, जो खुद अपना पेट काटकर दूसरों का आराम सुनिश्चित करते हैं, खास तौर पर उन लोगों का जो दूसरों की ही मेहनत पर जिंदा हैं। यही नहीं इससे लाभ भी माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों को होता है जो देश की जनता के दुश्मन हैं।

27.10.09

अखबारों ने फर्जी खबरे छपी

अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा (ए0आई0के0एम0एस0) ने संगठन द्वारा हिंसा करने की प्रेस रिपोर्टों की निन्दा करते हुए कहा है कि बिना किसी घटना हुए ही इस तरह की रिपोर्टों के छपने का उद्देश्य संगठन को बदनाम करने के लिए है और जनबूझकर पुलिस ऐसी रिपोर्टें छपवा रही है। सभा के प्रदर्शनों में भी हिंसा की कोई वारदात आज तक सामने नहीं आयी है।

अगर उसे ‘हिंसा’ कहा जा सके तो हिंसा की एक मात्रा घटना मजदूरों द्वारा मशीन और लोडर रोकने की है, जो किसानों और मजदूरों को उजाड़ रही थीं, और साथ में रवन्ने का गैर कानूनी कर तथा रायल्टी रोकने की। मशीनें, रायल्टी तथा अतिरिक्त रवन्ना चार्ज सब गैर कानूनी है और इसे रोकने की जिम्मेदारी पुलिस की है। अप्रैल 2008 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की खण्डपीठ ने भी कहा कि उप खनिजों में पारम्परिक समुदायों को काम रोकने वाली मशीनें गैर कानूनी है और सरकार को इन्हें रोकना चाहिए।

इसके साथ किसान सभा ने उतरवाई में लिए जाने वाले टोल कर तथा मेलों में अतिरिक्त तहबाजाारी रोकने का प्रयास किया। यद्यपि किसान सभा कुछ हद तक सफल हुई, उसके कार्यकर्ता बड़े ठेकेदारों और पुलिस के हमले के निशाने पर बने रहे। पुलिस ने नेताओं पर कई फर्जी मुकदमें भी दर्ज किए ह। हाल में आई0जी0 ने नेताओं पर धारा 384 के अन्तर्गत, एक्सटार्शन का केस दर्ज करा दिया। जबकि नेता किसी से भी पैसा नहीं वसूलते और जो ठेकेदार गैर कानूनी वसूली करते ह. उनमें से एक पर भी ऐसा केस दर्ज नहीं हुआ।

केवल अपने खाल बचाने के लिए पुलिस किसान मजदूर सभा द्वारा हिंसा की कहानियां छपवा रही है। वो सभा द्वारा हिंसा की एक भी घटना नहीं गिना सकती फिर भी जोर-शोर से लाल सलाम की हिंसा, हथियारों का इस्तेमाल, की बातें लिखी जा रही ह। यह समझना जरूरी है कि आम लोग गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए लाठी लेकर गांव से चलते ह। पुलिस चाहती है कि वो इन्हें रोक दे और सामन्ती गुण्डों के हमले का आसान शिकार बन जाएं।

पुलिस क्षेत्रा में दुर्भावना फैलाने और ए0आई0के0एम0एस0 नेताओं पर हमले प्रेरित करने के लिए इस तरह की कहानियां छपवा रही है। एस0ओ0 घूरपुर सतपाल सिंह ने मेले में बजरंग दल कार्यकर्ताओं द्वारा ऐसे हमले करवाए। 25 अक्टूबर 2009 को बजरंग दल नेता मणी जी तिवारी के नेतृत्व में एस0ओ0 ने गैरकानूनी बन्दूकों के साथ बजरंग दल का प्रदर्शन करवाया। न तो बजरंग दल पर कार्यवाही हुई और न ही एस0ओ0 पर। हालांकि ये बन्दूकें गैर कानूनी है।

सुरेश चन्द्र,
महासचिव,
अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

राजनीति की कमजोर होती शर्तें

ऋषि कुमार सिंह
उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल सहित नेपाल से लगा हुआ तराई इलाका,विस्तार लेते हुए धर्मोन्माद की चपेट में है। अशिक्षा और राजनैतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार से जूझ रहे तराई के बहराइच और श्रावस्ती जैसे जिले साम्प्रदायिक ताकतों के निशाने पर हैं। जिसकी ताजा मिसाल बहराइच की है,जहां दुर्गा-पूजा को लेकर जगह-जगह विवाद सामने आया है। हालांकि ये विवाद अचानक नहीं खड़े हुए हैं,बल्कि इसके लिए सुनियोजित तरीके से काम किया गया है। जिसके राजनीतिक निहितार्थ काफी सशक्त हैं।
पिछले साल श्रावस्ती जिले के खलीफतपुर गांव में दुर्गा-प्रतिमा के विसर्जन को लेकर साम्प्रदायिक तनाव पैदा हो गया था। खलीफतपुर में पूजा-प्रतिमा को गांव में ही विसर्जित करने पर समितियों और प्रशासन के बीच सहमति बन गई थी,लेकिन विसर्जन के समय समितियों ने नासिरपुर में दूसरी प्रतिमाओं के साथ विसर्जन करने की योजना बना डाली। जिससे प्रशासन के सामने संकट पैदा हो गया और भीड़ से निपटने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी थी। पिछले साल की इस घटना को ध्यान में रखते हुए बहराइच जिला प्रशासन ने इस बार ग्यारह नई जगहों पर प्रतिमाओं को स्थापित करने की इजाजत नहीं दी। जिसको लेकर प्रशासन और दुर्गा-पूजा समितियों के बीच गतिरोध कई दिनों तक बरकरार रहा। गौरतलब है कि यहां की दुर्गा-पूजा समितियां सीधे तौर पर राजनीतिक पार्टियों से सम्बद्ध लोगों की अध्यक्षता में काम कर रही हैं। इसलिए दुर्गा पूजा और विवादों के राजनीतिक निहातार्थ का पक्ष भी का कर रहा है। प्रशासन के सचेत रहने के वावजूद खलीफतपुर गांव की ही तर्ज पर इस बार बहराइच में कई जगहों पर साम्प्रदायिक-तनाव भड़काने की कोशिश की गई। बहराइच के रुपईडीहा और हुजूरपुर थाना क्षेत्र में ज्यादा घटनाएं सामने आयीं है। जिला मुख्यालय से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर बसे हेमरिया और हुसैनपुर गांव का सामाजिक तानाबाना साम्प्रदायिकता की आग में झुलसते-झुलसते बचा। यादव बाहुल्य हेमरिया गांव में दुर्गा पूजा के लिए मूर्ति की स्थापना का यह दूसरा मौका था। हुसैनपुर गांव के जिस रास्ते से विसर्जन के लिए दुर्गा-प्रतिमा को नदी तक ले जाना था,उस पर लोगों को आपत्ति थी। जहां तक आपत्ति का सवाल है,तो इसे जगह-जगह पर मूर्तियों की स्थापना के जरिए लोगों की धार्मिक अस्मिता की जानकारी देने वाली प्रक्रिया का प्रतिक्रियात्मक पहलू ही माना जाना चाहिए। नाजुक होते हालात के मद्देनजर प्रशासन ने वैकल्पिक रास्ते से प्रतिमा-विसर्जन करने का इंतजाम किया,लेकिन बीजेपी नेताओं के हस्तक्षेप के बाद वैकल्पिक रास्ते का इस्तेमाल न करने की जिद से संकट गहरा गया। फिलहाल प्रशासन,स्थानीय लोगों की मदद से प्रतिमा का विसर्जन कराने में सफल रहा। लेकिन बाहरी तौर पर शांतिपूर्वक ढंग से निपटने वाला यह लम्बे समय की अशांति और हलचलों को जन्म दे गया है। क्योंकि इस पूरी घटना ने स्थानीय चर्चा का माहौल बदल दिया है। खेती-किसानी,स्थानीय दिक्कतों और बेदम होती राजनीति की चर्चा करने वाली जनता अब धर्म के मुद्दे से जूझ रही है। चर्चाओं की छोर और उससे जुड़ते मुद्दों का बदल जाना देखने में भले ही सामान्य घटना लगती हो,लेकिन परिणाम के स्तर पर सामान्य होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। चर्चाओं का असर देर-सवेर जनता के व्यवहार पर जरूर आता है। इन बातों में वही राजनीतिक निहीतार्थ काम कर रहा है,जो औपनिवेशिक शासन के दौरान बांटो और राज करो के रूप में सक्रिय था। हेमरिया गांव में हुई घटना से उसके आस-पास के इलाके में जो जमीनी बदलाव दिखाई दे रहे हैं या आने वाले समय में स्पष्ट हो जाऐंगे,उसके बारे में सिर्फ अनुमान किया जा सकता है। समय बीतने के साथ इस ग्राम्य समाज में धर्मोन्माद की गंध पहले से ज्यादा हावी हो चुकी होगी। आने वाली दुर्गा पूजा में प्रतिमाओं की भव्यता और लोगों का जमावड़ा भी विस्तार ले चुका होगा। इस बार असफल रहे कथित नेता इस मामले को अस्मिता से प्रश्न से जोड़ते हुए अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने की जुगत में होंगे। हर लिहाज से पिछड़े इलाकों में दुर्गा-पूजा और रामलीलाओं के विस्तार लेते आयोजनों से साफ है कि लोगों को बड़े पैमाने पर इस तरह की आवश्यकताओं से परिचित कराया गया है। लेकिन इस परियोजना का ढांचा क्षेत्रीय नहीं,राष्ट्रीय है। कल तक जिन चौराहों पर कीर्तन नहीं होता था,आज वहां बाकायदा बड़ी-बड़ी मूर्तियां रखी जा रही हैं। इसके अलावा नुक्कड़ों,चौराहों और गलियों में होने वाले नए धार्मिक निर्माणों की भी संख्या बढ़ी है। तुलनात्मक रुप से यही हाल अन्य धर्मों के नए निर्माणों का है। गुरूद्वारा और मस्जिदों के बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। बढ़ते धार्मिक स्थलों जिस राजनीति को प्रश्रय मिलने की उम्मीद है,उसमें केवल भारतीय जनता पार्टी ही खिलाड़ी नहीं है। बल्कि इस बंदर बांट में लगभग सभी पार्टियां भागीदार हैं। बहराइच में पिछले कई चुनावों में देखा गया है कि विधानसभा और लोक सभा सीटों पर हार जीत का अंतर तेजी से घटा है। 2007 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को सीधे तौर पर नुकसान हुआ है। जिले की कुल सात सीटों में दो सीट समाजवादी पार्टी के पास और एक बीजपी के पास बची रह पायी। जबकि बाकी चार सीटों पर बहुजन समाजवादी पार्टी ने अपना अप्रत्याशित कब्जा जमाया। लेकिन लोक सभा चुनाव तक बसपा इस खिसकते हुए वोट को बचाये रख पाने में विफल रही। जिसका लाभ कांग्रेस को हुआ और अनुमान के विपरीत इस इलाके की सीट कांग्रेस के हाथ में चली गई। कुल मिलाकर यह माना जा रहा है कि विधानसभा चुनावों के समय साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कमजोर होने से आया विखराव लोक सभा चुनावों तक बसपा के पास से निकलकर कांग्रेस के खाते में चला गया। विधान सभा चुनाव 2007 में भाजपा ने जिस सीट पर जीत दर्ज की,वह इलाका सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक घटनाओं से जुड़ा़ हुआ है। खासकर त्यौहारों के दरमियान तो अक्सर ही इस तरह की घटनाएं हो जाती है। इस साल भी सबसे पहला साम्प्रदायिक मनमुटाव इसी क्षेत्र में सामने आया है। इस मनमुटाव को भुनाते हुए कई चुनावों से समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच अदला-बदली चलती रही है। लेकिन लोक सभा चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता ने दोनों पार्टियों को चौकन्ना कर दिया है। साथ में यह भी माना जा रहा है कि बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में मुस्लिम और दलित वोट बैंक का कांग्रेस की तरफ रूझान गया है। जिसकी बदौलत कांग्रेस का पुनर्जन्म हो रहा है। क्योंकि इस बार के लोक सभा चुनाव में मुस्लिम और दलित वोटों का कांग्रेस की तरफ रूझान गया है। जिसका सबूत है कि कांग्रेस ने बहराइच लोकसभा सीट पर अपनी जीत दर्ज की है। जबकि पिछले कई चुनावों में यह सीट सपा और भाजपा के खाते में रहती थी। वोटों के गठजोड़ के प्रकाश में ताजा घटनाओं को देखना खासा दिलचस्प हो जाता है। यानी समझदारी के तहत सपा और भाजपा मिलकर नूराकुश्ती का आयोजन कर रही हैं। इसमें इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जिस दौरान यहां साम्प्रदायिक मनमुटाव को उकसाने की कोशिश हुई है,उसी समय राहुल गांधी तराई के इन जिलों के दौरे पर थे। यानी तनावों के जरिए राहुल की गुपचुप यात्रा और दलित गांवों के दौरे से कांग्रेस के पक्ष में जा रहे लाभ को विफल करने की कोशिश भी की जा रही है।

साम्प्रदायिक राजनीति को सामंती मानसिकता और दशकों के प्रशिक्षण से तैयार हुए एजेंट नई दिशा दे रहे हैं। जिसका उदाहरण वे जनसंचार माध्यम हैं,भाषा और खबरों का चयन लोगों के भीतर साम्प्रदायिक राजनीति की मांग को जन्म देती है। क्योंकि लोगों के बीच जैसे-जैसे धार्मिक विश्वास बढ़ेगा,वैसे-वैसे उनका राजनीतिक रुझान धर्म आधारित राजनीति की तरफ होने लगेगा। इससे एक तरफ बहुधर्मी समाज की समरसता पर असर आयेगा,तो दूसरी तरफ जन-समस्याओं के राजनैतिक समाधान को लेकर उठने वाली मांग को भी दबाया जा सकेगा। इसे उत्तर प्रदेश की राजनीति से बखूबी समझ सकते हैं। पूर्वांचल में ही हर साल सैकड़ों लोग दिमागी बुखार(जापानी इंसेफलाइटिस) से अस्पताल-दर-अस्पताल भटकते हुए मर जाते हैं। साम्प्रदायिक ताकतों के प्रभाव में जो जनमानस मूर्तियों के लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाता है,वही जनमानस बेहतर इलाज की मांग के लिए कभी कोई प्रदर्शन या दबाव नहीं बनाता है,विकल्प के रूप में धार्मिक स्थानों का रुख कर लेता है। यह एक तरह से आसान भी है क्योंकि अस्पतालों से ज्यादा धार्मिक स्थलों की उपलब्धता है। यह जानते हुए भी कि जनता को गुणवत्तापूर्ण जीवन देने का दायित्व राज्य के अस्तित्व का प्रश्न है,पूरे मसले में समग्र राजनीति का अभाव देखा जा सकता है। साम्प्रदायिक और गैर-साम्प्रदायिक ताकतों का खेमा तैयार कर जनता को नूराकुश्ती का तमाशबीन बना दिया गया है। पहले,दूसरे और तीसरे पायदानों पर खड़ी पार्टियों में जो कुछ भी अंतर दिखाई देता है,वह दिन-प्रतिदिन की छद्म होती राजनीति के दरवाजे पर लटका हुआ परदा भर है। मौजूदा राजनीति के सभी खिलाड़ियों को पता है कि अगर बदलाव के लिए कोई राजनीति की गई और उसका असर हो गया,तो जिस तरह की सतही राजनीति की जा रही है,उसकी कोई जगह रह जाएगी और न ही संवैधानिक दायित्वों को नकार कर राजनीति करने का अवसर उपलब्ध होगा। खासकर बहराइच जैसे इलाकों में जहां की शिक्षा,स्वास्थ्य और प्रशासनिक लापरवाही जैसे समस्याओं को नजरंदाज कर साम्प्रदायिक रानजीति करने की कोशिशें आजादी के बाद से जारी है।

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